रफ्तार

 ऐ जिंदगी मैं तेरे साथ भाग रहा था 

नींद में था गहरी फिर भी जाग रहा था 

ना सपनों का सैलाब था

ना आंखों में कोई  ख्वाब था

हर शख्स  बेनकाब था

फिर भी मैं लाजवाब था

भीतर खुद से ही हौड़ थी

बाहर तो लंबी दौड़ थी

सब कुछ जैसे गुमनाम हुआ

जीवन सुबह से शाम हुआ

उम्मीदों पर पहरा सा था

हर पल जैसे ठहरा सा था

चलते चलते चलते चलते 

खुद को मीलों तक नापा था

थक कर जब बैठा तो जाना

 मेरे कण-कण में वो विधाता था





Comments

Popular posts from this blog

पहले ज़माने की मां